भारतीय संस्कृति में पर्व-त्यौहार का उद्देश्य मानवीय मूल्यों का विकास एवं
उदात्त भावनाओं की सार्थक अभिव्यक्ति है। इन पर्वों में श्रावणी या
रक्षाबंधन का विशेष महत्व है। वैदिक युग से प्रचलित यह पर्व शिक्षा,
स्वास्थ्य तथा सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना एवं पुनर्स्मरण का पर्व
है। इसे प्रायश्चित एवं जीवन मूल्यों की रक्षा के संकल्प पर्व के रूप में भी
मनाया जाता है। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी
उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। श्रावण की पूर्णिमा को पूरा भारत रक्षाबंधन
मनाता है। भाई-बहन के बीच स्नेह और रक्षा के इस पवित्र पर्व का विकास भारतीय
संस्कृति में कई स्तरों पर हुआ है। रक्षाबंधन से जुड़ी यों तो कई लोककथाएं
हैं और ऐतिहासिक आख्यान हैं कि भाई या किसी समर्थ पुरूष की कलाई पर एक
स्त्री ने राखी का धागा बांधा और राखी के धागे के संकल्प को पूरा करने के
लिए उस व्यक्ति ने अपना सर्वोच्च एवं श्रेष्ठतम न्यौछावर कर दिया। इस तरह
यह पर्व लोकपर्व के रूप में रक्षण, संरक्षण, और आश्वस्ति के उत्सव के रूप
में संपूर्ण भारत में मनाया जाता है। पर आख्यानों और जनश्रुति से अलग इसका एक
सांस्कृतिक विकासक्रम भी है। भारत की चुतष्पाद धर्मव्यवस्था जो जन्म पर
नहीं कर्म और गुण पर आधारित थी उसमें इसे श्रावणी या श्रावणी उपाकर्म के रूप
में अनुष्ठित किया जाता था। श्रावणी सावन माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है।
अर्थात् वह समय जब औषधीय गुणों वाली वनस्पतियां स्वयं ही धरती की कोख से
उगती हैं और ये औषधियां मनुष्य के रोग-दोष को दूर कर उसे स्वस्थ जीवन देती
हैं। इन वनस्पतियों में श्रेष्ठतम है सोम। सोम पूर्णिमा को ही पूर्णता को
प्राप्त होता है। उसी प्रकार यह महीना है शिव का। शिव जो नटराज हैं, सामवेद
के उद्गाता हैं, उनकी साधना का दिन है। साम के गान, सोम के संधान और शिव की
साधना के महीने सावन की पूर्णिमा पूर्ण सोम अर्थात् पूर्ण चंद्र के साथ सभी
प्रकार से कल्याण के पर्व का विधान करती है। इसलिए सावन की पूर्णिमा को
उपाकर्म होता है। उपाकर्म यानी प्रारंभ करना, नजदीक ले आना। वैदिक काल में यह
वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था।
इस दिन द्विज होने को संकल्प होता है। यह मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्म ने "एकोsहं बहुस्याम:" का
संकल्प धारित किया था। पुराण इसको इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि इसी दिन
श्रीहरि की नाभि से वह कमल पुष्प निकला जिसके ऊपर ब्रह्मा प्रकट हुए थे और
उन्होंने कमल पुष्प पर बैठकर सृष्टि की रचना की थी। यह एक मिथकीय कल्पना
है। श्रीहरि का यह रूप सृष्टि की उत्पत्ति, रक्षण एवं संहार को प्रस्तुत
करता है। कमल का नाभि से निकलना सृजन है, बीज सृष्टि है और ब्रह्मा के द्वारा
सृष्टि की रचना करना बीज सृष्टि का विराट सृष्टि में रूपांतरण है। इसलिए एक
कालखंड था जब पूरे भारत में नदी, सरोवर, जल स्रोतों के किनारे लोग एकत्रित
होते थे। स्नान के बाद वे तीन कार्य करते थे। सबसे पहले पूर्ववर्ती काल में
हुई गलतियों और पापों के लिए प्रायश्चित करते थे। गुप्त पापों को भी
संकल्पपूर्वक सार्वजनिक करते थे और आने वाले वर्ष में यह गलती न हो इसका व्रत
धारण करते थे। प्रतीकात्मक रूप से इसके लिए हिमाद्रि स्नान होता था जिसमें
पंचगव्य और पवित्र कुशा से स्नान किया जाता था। जाने अनजाने हुए पापों एवं
गलतियों के लिए क्षमा प्रयाश्चित करके वे आने वाले जीवन के लिए अपने को
सत्कार्य के संकल्प से भरते थे। उसके बाद सप्तऋषि पूजन करके अनादि आचार्य
परंपरा के प्रति अपनी श्रद्धा समर्पित करते थे। सूर्य की उपासना के द्वारा
स्वयं प्रकाशित होने तथा औरों को भी प्रकाशित करने के संकल्प के बाद होता था
शिक्षा का आरंभ। यह कार्य पूरा होता था रक्षाबंधन और वृक्षारोपण के साथ।
रक्षाबंधन करते हुए दानवेन्द्र महाबलि को याद कर यह कामना की जाती थी कि
"येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे
माचल माचल:।"
जिस प्रकार दानवेन्द्र बलि को वामन ने रक्षा के सूत्र में संकल्पबद्ध कर
लिया था, वैसे ही यह सूत्र जिसकी कलाई पर है वह बांधने वाले की रक्षा में सजग
रहेगा। और यह पूरा होता था वृक्ष, वनस्पतियों के रोपण से। इस प्रकार श्रावणी
पर्व निसर्ग और समाज सबके सह अस्तित्व की कामना, सात्विक और नैतिक जीवन जीने
की इच्छा और उसकी रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने के भाव को
जागृत कर देने वाला पुण्यपर्व है। काल के साथ इसमें संकल्प और व्रत का जो
भाव था वह छीजता गया तथा उत्सवांश जुड़ता गया। फिर भी पवित्रता और न्यौछावर
करने का भाव रक्षाबंधन के पर्व के रूप में आज भी जीवित है। पर प्रत्येक
मनुष्य के ब्रह्म बर्चस्व बनाने का जो उदात्त संकल्प एवं महनीय भाव है वह
श्रावणी उपाकर्म के लुप्त होने के साथ लोक से लुप्त हो गया। आज वामन से
विराट होने के लिये समाज के लघुतम व्यक्ति का महतम से रक्षित होने की भावभूमि
को जागृत करने के लिये इसका पुनर्स्मरण आवश्यक है।